|| दुनिया में चीत्कार चारों ओर है, कैसा ये मुश्किल दौर है ||
दुनिया में चीत्कार चारों ओर है, कैसा ये मुश्किल दौर है ||
मनुज जिसने प्रक्रति का चहुँ ओर से दोहन किया, एक निशाचर की भांति शोषण किया | भक्षण किया |
शहर सूने, गाँव सूने, गलियां भी वीरान हैं, सुनसान हैं, आज सब हैरान हैं |
एक बंधन चारों और है| कैसा ये मुश्किल दौर है |
सबल मानव जिसने परमाणु बमों का सृजन किया| एक विषाणु के आगे भयभीत है, लाचार है |
रुकी हुई सी सासें हैं, जलती हुई लाशें हैं और वीरानी सी है ऐसे जैसे चारों और शमशान है |
दुःख व ख़ामोशी चारों ओर है| कैसा ये मुश्किल दौर है |
हुई खता मनुज से, जो इस धरा से छल किया, समय का पहिया रुक गया, कोई ले रहा इम्तिहान है|
मनुज जिसने ईश्वर से भी प्रपंच किया| आज विनती कर रहा उसी रब से इंसान है|
फैला अँधियारा चारों ओर है| कैसा ये मुश्किल दौर है |
खेत और खलिहान सूने, कैसी विलक्षण बेला, घरों में छुप गया इंसान है, दिलों में उठ रहा तूफ़ान है|
हैं कुछ लोग सेवा की खातिर रणभूमि में डंटे हुए, काल से ले रहे हैं पंगा, हैं कोई देव या भगवान हैं |
फैला डर का धुआं दुनिया में चारों ओर है| कैसा ये मुश्किल दौर है |
नदियाँ हुई हैं निर्मल, दर्पण हो जैसे, तारें दिखने लगें हैं नभ में,
मनुज से बचकर हवा हुई है भीनी- भीनी, खुशबु भरी, नीले आसमां में पंछियों के कलरव का शोर है,
कुदरत का बदला रंग चारों ओर है, कैसा ये मुश्किल दौर है |
दुनिया में चीत्कार चारों ओर है, कैसा ये मुश्किल दौर है ||
-राकेश दुहान-