opinion

आखिर कब जानेंगे भारत रत्न लाल बहादुर शास्त्री जी की मौत का सच ! – विनोद बंसल

11 जनवरी आते ही छोटे से कद-काठी वाला एक ऐसा चेहरा स्मृति में कौंधने लगता है जो अपने जीवन की असंख्य कठिनाइयों से लड़ते हुए देश को तो विजय दिला गया किन्तु स्वयं अपनी जिंदगी को नहीं बचा पाया। उनके जीवन यात्रा का वृत्तांत तो सबको पता है किन्तु जीवन के अंतिम कुछ घंटों में उनके साथ क्या हुआ यह गोपनीयता के पिटारे में अभी तक बंद है। दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र के करोड़ों नागरिकों द्वारा चुने गए यशस्वी प्रधानमंत्री की एक महान विजय के तुरंत बाद असमय विदेशी धरती पर रहस्यमय मौत गत 54 वर्षों से मात्र एक पहेली बनी हुई है। जिसे जानने के लिए ना सिर्फ उनकी पत्नी बेटे पोते या अन्य परिजन बल्कि सम्पूर्ण देशवासी उत्सुक हैं।

2 अक्टूबर 1904 को देश के सबसे बड़े राज्य उत्तर प्रदेश की धार्मिक नगरी वाराणसी से मात्र सात मील दूर एक छोटे से रेलवे टाउन, मुगलसराय में एक स्कूल शिक्षक के घर जन्मे श्री लाल बहादुर शास्त्री के सर से मात्र डेढ़ वर्ष की उम्र में ही पिता का साया उठ गया। घर पर सब उन्हें नन्हे के नाम से पुकारते थे। चाहे कितनी ही भीषण सर्दी, गर्मी या बर्सात हो, वे कई मील दूर तक पैदल नंगे पांव ही विद्यालय जाते थे। विदेशी दासता से मुक्ति हेतु, वे जब केवल ग्यारह वर्ष के थे, तब से ही, उन्होंने राष्ट्रीय स्तर पर कुछ करने का मन बना लिया था।

1927 में मिर्जापुर की ललिता देवी से हुई उनकी शादी में दहेज के नाम पर एक चरखा एवं हाथ से बुने हुए कुछ मीटर कपड़े ही थे। 1930 में महात्मा गांधी ने जब नमक कानून को तोड़ते हुए दांडी यात्रा की, शास्त्री जी भी पूरी ऊर्जा के साथ स्वतंत्रता के इस संघर्ष में कूद पड़े। अनेक विद्रोही अभियानों का नेतृत्व करते हुए वे कुल सात वर्षों तक ब्रिटिश जेलों में भी रहे।

1946 में जब कांग्रेस सरकार का गठन हुआ तो इस ‘छोटे से डायनमो’ को पहले अपने गृह राज्य उत्तर प्रदेश का संसदीय सचिव तथा बाद में गृह मंत्री बनाया गया। भीड़ नियंत्रण हेतु लाठी के स्थान पानी की बौछारों के प्रयोग तथा कंडक्टर के पद पर महिलाओं की नियुक्ति, उन्हीं के कार्यकाल में पहली बार हुई। 1951 में वे दिल्ली आ गए एवं केंद्रीय मंत्रिमंडल के कई विभागों का प्रभार संभाला – रेल मंत्री; परिवहन एवं संचार मंत्री; वाणिज्य एवं उद्योग मंत्री तथा गृह मंत्री। यहाँ तक कि प्रधान मंत्री नेहरू जी की बीमारी के दौरान वे बिना विभाग के मंत्री भी रहे।

एक रेल दुर्घटना, जिसमें कई लोग मारे गए थे, के लिए स्वयं को जिम्मेदार मानते हुए उन्होंने रेल मंत्री के पद से जब इस्तीफा दिया तो सम्पूर्ण देश एवं संसद ने उनकी इस अभूतपूर्व पहल की भूरि-भूरि प्रशंसा की। 1952, 1957 एवं 1962 के आम चुनावों में पार्टी की जबर्दस्त सफलता में उनकी अद्भुत सांगठनिक क्षमता का बड़ा योगदान था। तीन दशकों तक देश को अपनी समर्पित सेवा, उदात्त निष्ठा, अपूर्व क्षमता, विनम्रता, सहिष्णुता एवं दृण इच्छा-शक्ति के बल पर शास्त्री जी लोगों के दिलो-दिमाग पर छा गए। उनकी प्रतिभा और निष्ठा ने ही नेहरू जी की मृत्यु के बाद 9 जून 1964 को उन्हें प्रधानमंत्री बनाया। 26 जनवरी 1965 को खाद्य के क्षेत्र में देश को आत्म निर्भर बनाने के उद्देश्य से ‘जय जवान, जय किसान’ का नारा उन्होंने ही दिया था तथा देश की आर्थिक दशा को देखते हुए ही उन्होंने देश वासियों से सप्ताह में एक दिन उपवास रख अन्न बचाने का आग्रह किया जिसे सबसे पहले उन्होंने स्वयं से प्रारम्भ किया। सादगी, देशभक्ति और ईमानदारी के लिए, मरणोपरांत, 1966 में उन्हें ‘भारत-रत्न’ से सम्मानित किया गया।

शास्त्री जी के नेतृत्व में ही भारत-पाकिस्तान के बीच 1965 में अप्रैल से 23 सितंबर के बीच 6 महीने तक युद्ध चला। जनवरी, 1966 में दोनों देशों के शीर्ष नेता तब के रूसी क्षेत्र में आने वाले ताशकंद में शांति समझौते के लिए रवाना हुए। पाकिस्तान की ओर से राष्ट्रपति अयूब खान वहां गए। 10 जनवरी को दोनों देशों के बीच शांति समझौता भी हो गया किन्तु इसके मात्र 12 घंटे बाद यानि 11 जनवरी को तड़के 1।32 बजे अचानक उनकी मौत की खबर ने सबको चौंका दिया।

आधिकारिक तौर पर तो कहा जाता रहा है कि उनकी मौत दिल का दौरा पड़ने से हुई। और 1959 में भी उन्हें एक हार्ट अटैक आया था। किन्तु एक ऐतिहासिक समझौते के चंद घंटों के अन्दर ही आधी रात को परदेश में प्रधानमंत्री की मृत्यु ने ना सिर्फ उनके साथ गए प्रतिनिधि मंडल बल्कि, सम्पूर्ण विश्व को सकते में डाल दिया।

कुछ आरटीआई के जबाव, पुस्तकों के उद्दरण व शास्त्री परिवार के लोगों व जनमानस में उठे प्रश्नों पर गौर करें तो पता चलता है कि मरने से 30 मिनट पहले तक, यानि रात्रि 12।30 बजे तक वे बिलकुल ठीक थे। 15 से 20 मिनट में तबियत खराब हुई और वे हमसे विदा हो लिए। यह भी कहा जाता है कि उन्हें उनके साथ गए अधिकारियों व स्टाफ से दूर अकेले में रखा गया। तथा साथ गए कुक को भी ऐन मौके पर बदल दिया गया। उस रात खाना उनके नौकर रामनाथ ने नहीं, बल्कि सोवियत संघ में भारतीय राजदूत टी एन कौल के पाकिस्तानी कुक जान मोहम्मद ने बनाया था। धटना के बाद उस बावर्ची को हिरासत में तो लिया गया लेकिन, बाद में उसे छोड़ दिया गया। कहते हैं कि वह पाकिस्तान भाग गया जिसे इंदिरा जी ने आजीवन घर बैठे पेंसन भी दी।

उनका आवास ताशकंद शहर से 15-20 किमी दूर रखा गया तथा उनके कमरे में घंटी व फोन तक नहीं था। शायद इसी कारण उस आधी रात को जब शास्त्री जी खुद चलकर सेक्रेटरी जगन्नाथ के कमरे में गए तब वह दर्द से तड़प रहे थे। उन्होंने दरवाजा नॉक कर जगन्नाथ को उठाया और डॉक्टर को बुलाने का आग्रह किया। जगन्नाथ ने उन्हें पानी पिलाया और बिस्तर पर लिटा दिया। उनके निजी चिकित्सक डॉक्टर आरएन चुग ने पाया कि उनकी सांसें तेज चल रही थीं और वो अपने बेड पर छाती को पकड़कर बैठे थे। इसके बाद डॉक्टर ने इंट्रा मस्कूलर इंजेक्शन दिया और उसके तीन मिनट बाद ही शास्त्री का शरीर शांत होने लगा और सांस की गति धीमी पड़ गई। इसके बाद सोवियत डॉक्टर को बुलाया गया किन्तु इससे पहले कि सोवियत डॉक्टर इलाज शुरू करते, 1।32 बजे शास्त्री की मौत हो गई।

कहते हैं कि शास्त्रीजी की मौत वाली रात दो ही गवाह मौजूद थे। एक थे उनके निजी चिकित्सक आरएन चुग और दूसरे थे उनके सेवक रामनाथ। दोनों ही शास्त्रीजी की मौत पर 1977 में गठित राजनारायण संसदीय समिति के समक्ष पेश नहीं हो सके क्योंकि दोनों को ही ट्रक ने टक्कर मार दी। इसमें डॉक्टर साहब तो मारे गए, जबकि रामनाथ अपनी स्मरण शक्ति गंवा बैठे। बताते हैं कि समिति के सामने गवाही से पहले रामनाथ ने शास्त्रीजी के परिजनों से ‘सीने पर चढ़े बोझ’ का जिक्र किया था, जिसे वह उतारना चाहते थे।

यह भी कहा जाता है कि शायद उनके हाथ ताशकंद में नेताजी सुभाष चन्द्र बोस की मौत से जुडा कोई सुराग मिल गया था! पत्रकार ग्रेगरी डगलस से साक्षात्कार में सीआईए के एजेंट रॉबर्ट क्रोले ने दावा किया था कि शास्त्रीजी की मौत का प्लॉट सीआईए ने तैयार किया था। उनके मृत शरीर का ना तो पोस्टमार्टम किया गया और ना ही मौत की जांच रिपोर्ट को सार्वजनिक किया गया। शास्त्री जी के बेटे सुनील शास्त्री व अन्य परिजनों ने भी इस हेतु सरकारों से अनेक बार अपील करते हुए कहा था कि उनकी मृत्यु प्राकृतिक नहीं थी। उनकी छाती, पेट और पीठ पर नीले निशान थे और कई जगह चकते पड़ गए थे, जिन्हें देखकर साफ़ लग रहा था कि उन्हें ज़हर दिया गया है। पत्नी ललिता शास्त्री का भी यही मानना था कि अगर हार्टअटैक आया तो उनका शरीर नीला क्यों पड़ गया था! यहां वहां चकत्ते क्यों पड़ गए। यदि पोस्ट मार्टम होता तो उनकी मौत का सच अवश्य सामने आता।

यह आज तक स्पष्ट नहीं है कि शास्त्रीजी की मौत या उनके अंतिम समय से जुड़े दस्तावेज किसके आदेश से गोपनीय करार दिए गए ? एक श्रेष्ठ नेता, पूर्व प्रधान मंत्री व भारत रत्न की विदेश में विस्मयकारी असमय मृत्यु की सच्चाई को जानने से देश को आखिर क्यों बंचित रखा जा रहा है? कम से कम वर्तमान सरकार को इस मामले में पहल कर नेता जी सुभाष चन्द्र बोस की तरह भारत के इस बहादुर लाल से जुड़े दस्तावेजों को भी सार्वजनिक करना चाहिए।

लेखक विश्व हिन्दू परिषद् के राष्ट्रीय प्रवक्ता हैं।

Tags
Show More

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Back to top button
Close
Close