ओशो का व्यक्त्वित्व और योगदान, दोनों ही इतने सूक्ष्म और व्यापक हैं कि उसे समझाना या उसे कहना, बहुत ही मुश्किल का काम है। सच तो यह है कि जहाँ गहराई होती है, वहां रहस्य भी होते हैं और हर रहस्य के अपने अलग आयाम होते हैं, जिसे महसूस करने और अभिव्यक्त करने के अपने – अपने मापदंड और माध्यम होते हैं। यही कारण है कि ओशो बहुतों की पसंद भी हैं और न पसंद भी। किसी क लिए ओशो भगवान् हैं तो किसी क लिए मात्र सेक्स गुरु। जहाँ इतनी विविधता हो वहां अनुभव ही काम आते हैं, अंदाज़े या धारणाएं नहीं। यही कारण है कि ओशो को न केवल गलत समझा गया बल्कि उन पर कई आरोप भी लगे। ओशो पूर्व की मयताओं और परम्पराओं से अलग हैं , गलत नहीं। अलग होने का अर्थ गलत होना नहीं होता। ओशो एक नए युग का प्रारम्भ हैं, धारणाएं और उन्हें परिभाषित या रेखांकित नहीं कर सकती। इसके लिए हमें ओशो को पढ़ना – सुनना पड़ेगा, उनकी ध्यान विधियों से गुजरना पढ़ेगा। जाने माने लेखक, संपादक, कवि – शायर और ध्यान प्रशिक्षक व ओशो संन्यासी स्वामी आनंद सदैव उर्फ़ शशिकांत सदैव की, प्रभाकर प्रकाशन से प्रकाशित, पुस्तकें ओशो प्रेमियों के लिए ही नहीं ओशो विरोधियों के लिए भी बहुत ज़रूरी है। यह पुस्तकें न केवल हमें ओशो व उनके योगदान को समझने में मदद करती हैं बल्कि उन्हें गलत क्यों समझा गया ? क्या है उनसे जुडी भ्रांतियों का सच ? आदि की सच्ची तस्वीर प्रस्तुत करती है।
ओशो की जीवन यात्रा
ओशो की देशनाएं, दर्शन व ध्यान विधियां आदि तो अद्भुत हैं ही, पर उनका जीवन भी अपने आप में अद्भुत और अद्वितीय है। उनके जीवन की घटनाएं भी हमें प्रेरित व रूपांतरित करने वाली हैं। ओशो का जीवन कितना निराला है तथा किस तरह हमें आम से खास इंसान बनने की, भीतर छिपे बुद्घत्व को प्रकट करने की कला सिखाता है, यह जानना भी अति आावश्यक है। इस पुस्तक का उद्देश्य यही है कि हम न केवल ओशो के गरिमापूर्ण जीवन को जानें बल्कि उनके जीवन से प्रभावित होकर अपने भीतर की छिपी संभावना व प्रतिभा को पंख दें।
ओशो आज भी विवादित हैं क्योंकि लोग उनके जीवन से जुड़ी आधी-अधूरी व गलत जानकारियों को और भी नकारात्मक ढंग से प्रस्तुत करते हैं तो, कोई उसमें कुछ भी जमा-घटा करके कुछ का कुछ बना देता है। ऐसी कोई पुस्तक, विशेषकर हिन्दी में नहीं है जो ओशो के जीवन की विस्तृत जानकारी देती हो, लेकिन इस पुस्तक पर भरोसा किया जा सकता है, क्योंकि यह पुस्तक उन सब प्रेमियों, संन्यासियों, घर-परिवार वालों की है जो ओशो के निकट रहे हैं, व उनके सहयोगी रहे हैं। जिनकी आंखों में ओशो ने प्रत्यक्ष झांका है। उनकी झांकी है यह पुस्तक।
ओशो के बाद का विवाद
ओशो के जाने के बाद ऐसे कई विवाद हैं जिनसे ओशो संन्यासी भी परेशान हैं। उन्हें खुद नहीं पता कि इतने विवाद क्यों हैं, इसलिए जब कोई मित्र उनसे इन विवादों के बारे में पूछता है तो उनके पास उनकी कोई सही व ठोस जानकारी नहीं होती। यह पुस्तक उन्हें उन विवादों की बारीकियों से परिचित करवाती है। जैसे, ओशो की मृत्यु प्राकृति मृत्यु नहीं थी, ओशो ने अपनी पुस्तकों का कॉपीराइट करवा रखा था, ओशो नाम अब एक ट्रेडमार्क हो गया है जिसे कोई और प्रयोग नहीं कर सकता, पूना में स्थित ओशो कम्यून के आए अनेकों परिवर्तन गैरकानूनी एवं मनगढंत हैं। एक तरफ इन विषयों पर विवाद है तो कहीं उन लोगों के कारण विवाद हैं जो ओशो की देशनाओं एवं निर्देशित ध्यान विधियों तथा आश्रम व्यवस्था को ठीक उसके विपरीत कर रहे हैं। कौन मिलावटी है, तो कौन दिखावटी। कौन ओशो को बेच रहा है तो कौन ओशो को बचा रहा है? सब कुछ इस पुस्तक को पढ़कर स्पष्ट हो जाता है।
ओशो का योगदान
ओशो का योगदान इतना गहन और विस्तृत है कि उनके योगदान को किसी धर्म, देश, लिंग या उम्र में सीमित नहीं किया जा सकता। अपने साहित्य के रूप में जो उन्होंने पीछे रख छोड़ा है वह उन्हें सदा आगे रखता रहेगा। ओशो भविष्य के मनुष्य हैं, उन्होंने वह सब दे दिया है जिसकी आने वाले युगों में भी आवश्यकता रहेगी। ओशो का योगदान किसी व्यक्ति विशेष के लिए नहीं है। उनका व्यक्तित्व बहुआयामी है, इसलिए वह सभी संभावनाओं का आरंभ भी है और अंत भी। उन्होंने मनुष्य के जगत को क्या दिया इसके लिए उनके हर आयाम को जीना और समझना पड़ेगा, पर हर इंसान ने उन्हें व उनके योगदान को अपने नजरिए से सीमित कर रखा है। ओशो उनके आंगन से टुकड़ा भर दिखने वाले आकाश का नाम नहीं है। ओशो आकाश की तरह हैं, जिसे जहां से, जितना भी देखो उसके बावजूद भी वह कई गुना रह जाते हैं। यह पुस्तक ओशो के विभिन्न क्षत्रों दिए गए योगदान को टुकड़े-टुकड़े में देखने का नहीं उन्हें पूरा साबुत दिखाने का प्रयास है।
ओशो पर लगे आरोप और उनकी सच्चाई
ओशो प्रेमियों एवं संन्यासियों को अलग रखकर बात करें तो अधिकतर लोगों की नजर में ओशो एक व्यक्ति का ही नाम है जो 80 के दशक में आध्यात्मिक गुरु के रूप में उभरा कम था बल्कि विवादों एवं आरोपों में घिरा अधिक था। दुर्भाग्य से ऐसा मानने व सोचने वालों की संख्या ज्यादा है। यह पुस्तक इसी बात को ध्यान में रखकर लिखी गई है। जहां एक ओर यह पुस्तक ओशो पर लगे तमाम आरोपों को सुलझाती है वहीं इस बात को भी रेखांकित करती है कि ‘आखिर ओशो को गलत समझा क्यों गया?’ साथ ही बड़ी ईमानदारी के साथ प्रश्न उठाती है कि ‘क्या ओशो के अपने संन्यासी भी ओशो को समझ पाए हैं या नहीं?’ ऐसे में यह विषय और भी गम्भीर और महत्त्वपूर्ण हो जाता है और मांग करने लगता है एक ऐसी किताब की जो इन सब सवालों व आरोपों पर निष्पक्ष होकर प्रकाश डाले ताकि ओशो की वास्तविक व सच्ची छवि उभर सके और ओशो बिना किसी गलत धारणा व विवाद के सीधे -सीधे समझ में आ सकें।